फूल अच्छा नहीं लगता है चमन से बाहर बद-नसीबी हमें ले आई वतन से बाहर एक भी शख़्स अगर हो तो बता दो मुझ को कौन इस दौर में है रंज-ओ-मेहन से बाहर ज़र-परस्तो कभी सोचा भी है कि क्यों आख़िर हाथ रक्खे थे सिकंदर के कफ़न से बाहर चंद सिक्के नहीं मिलती है अज़िय्यत फिर भी लोग अक्सर चले जाते हैं वतन से बाहर अब ये बस्ती भी हुई जाती है वीराँ 'आतिश' सोचता हूँ कि निकल जाऊँ बदन से बाहर