फूल जैसी है कभी ये ख़ार की मानिंद है ज़िंदगी सहरा कभी गुलज़ार की मानिंद है तुम क़लम की धार को कम मत समझना दोस्तो ये क़लम तो है मगर तलवार की मानिंद है चार दिन के वास्ते सब को मिली है दहर में ज़िंदगी भी रेत की दीवार की मानिंद है पास पैसा है नहीं फिर भी जहाँ में मस्त हूँ ज़िंदगी अपनी किसी फ़नकार की मानिंद है ज़िंदगी किस वक़्त धोका दे दे 'अंबर' क्या पता ये भी लगता है किसी ग़द्दार की मानिंद है