फूल ख़ुश्बू चाँदनी महताब वो पर मिरी ख़ातिर है कोई ख़्वाब वो अपनी अपनी उलझनों में यार गुम अब कहाँ है हल्क़ा-ए-अहबाब वो इस क़दर बेताब आख़िर किस लिए ये नहीं है ऐ दिल-ए-बे-ताब वो बुझ गया कुछ दिल भी अब के हिज्र में और चेहरे पर कहाँ है ताब वो एक सहरा की तरह मैं तिश्ना-लब एक नद्दी की तरह सैराब वो दुश्मन-ए-जाँ है मगर अच्छा लगा जानता है कुछ अदब आदाब वो जागने का काम मुझ को सौंप कर देखता रहता है मेरे ख़्वाब वो मैं हूँ अर्ज़ां साहिलों की रेत सा और कोई गौहर-ए-नायाब वो दूर तक 'फ़ारूक़' तपती रेत है अब यहाँ आते नहीं सैलाब वो