फ़ुर्क़त-ए-बज़्म-ए-यार का दिल में ज़ख़्म अभी तक ताज़ा है कौन सा था वो जुर्म-ए-मोहब्बत जिस का ये ख़म्याज़ा है झूटी क़स्में क्यों खाते हो क्यों ईमान गँवाते हो कितना हम से प्यार है तुम को इस का हमें अंदाज़ा है हर चेहरे पर इक चेहरा है किस को हम आईना दिखलाएँ मक्र-ओ-फ़रेब-ओ-किज़्ब-ओ-रिया का हर इक रुख़ पर ग़ाज़ा है इस नगरी में बसने वाले और भी आख़िर बस्ते हैं हम पर ही क्यों ख़ास इनायत हम पर ही आवाज़ा है जाते जाते मुड़ कर उस ने एक नज़र तो देखा था मुद्दत गुज़री उन लम्हों की याद अभी तक ताज़ा है इस से फ़ुज़ूँ-तर 'वासिल' अपनी महरूमी अब क्या होगी जिस से हम को आस बहुत थी बंद वही दरवाज़ा है