गलियों गलियों शोर मचा है इक फ़ित्ना बेदार हुआ सब्र-ओ-सुकूँ के लम्हे ग़ारत ज़ीस्त से जी बेज़ार हुआ ज़ुल्म-ओ-सितम मेआ'र-ए-सियासत किज़्ब-ओ-रिया अक़दार-ए-हयात हर्फ़-ए-सदाक़त कम-ज़र्फ़ों में कितना ज़लील-ओ-ख़्वार हुआ जिन के लबों पर हर्फ़-ए-वफ़ा था जिन की ज़बाँ पर सिद्क़-ओ-सफ़ा उन की इक इक तर्ज़-ए-अदा पर अहल-ए-ख़िरद का वार हुआ पहले भी कब घर में सुकूँ था किस को फ़राग़त हासिल थी लेकिन अब तो लम्हा लम्हा ख़ंजर और तलवार हुआ हम भी मदह-सराई करते हम भी क़सीदा-गो होते शुक्र है ख़्वाहिश-ए-जाह में हाइल शाइ'र का पिंदार हुआ तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ करने पर मैं क्या क्या क़हर से गुज़रा हूँ 'वासिल' ज़ीस्त का लम्हा लम्हा ख़ुद मुझ से बेज़ार हुआ