फ़ुर्क़त में कोई ज़ीस्त का सामाँ नहीं होता मर जाएँ तो मरना कोई आसाँ नहीं होता चुप हूँ कि तड़पने का भी मक़्दूर नहीं है दरमाँ इसे समझे हो ये दरमाँ नहीं होता औसान भुला देते हैं मौजों के थपेड़े मिलना दुर-ए-मक़सूद का आसान नहीं होता तुम हाल तो पूछो कभी दीवाना-ए-ग़म का बेकार कोई चाक-गरेबाँ नहीं होता उस वक़्त उन्हें फ़िक्र हुई चारागरी की जब मौत से बढ़ कर कोई दरमाँ नहीं होता हर ठेस पे पहले से सिवा आते हैं आँसू हासिल उन्हें अब दोस्त का दामाँ नहीं होता क्या इन दिनों मातम है किसी अहल-ए-वफ़ा का क्यों आप की महफ़िल में चराग़ाँ नहीं होता मुझ को तो करीमी पे तिरी नाज़ है हर दम मैं कब तिरा मिन्नत-कश-ए-एहसाँ नहीं होता जब उन का करम था 'शिफ़ा' हर इक का करम था अब मुझ पे कोई माइल-ए-एहसाँ नहीं होता