ग़फ़लत में हुई औक़ात बसर ऐ उम्र-ए-गुरेज़ाँ कुछ न किया सब चलने के थे सामान बहम चलने ही का सामाँ कुछ न किया वाइ'ज़ ने भरे ख़म चूर किए तर कर दी ज़मीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ ज़ालिम ने ज़रा भी तेरा लिहाज़ ऐ रहबर-ए-ईमाँ कुछ न किया आ'माल की ज़िश्ती का बदला मैं कह नहीं सकता क्या मिलता भेजा भी अगर दोज़ख़ में तुझे ऐ साहब-ए-ईमाँ कुछ न किया मय पीने का दिल में जोश न था ज़ाहिर की तलब थी होश में आ साक़ी ने मिलाया ज़हर अगर ऐ मुंकिर-ए-एहसाँ कुछ न किया माना कि बड़ी सफ़्फ़ाक है तू बिल-फ़र्ज़ बड़ी जल्लाद है तू मैं जीता रहा ता-सुब्ह अगर तो ऐ शब-ए-हिज्राँ कुछ न किया तकलीफ़ किसी को गर पहूँची तू इस में तकल्लुफ़ क्या निकला हैरान जो रखा क़ातिल को तो ऐ शब-ए-हिज्राँ कुछ न किया उल्टा न इराक़-ओ-शाम-ओ-हलब दुनिया न हुई वीरान तो क्या जल-थल न लहू से तो ने भरा तो ख़ून-ए-मुसलमाँ कुछ न किया सुनता हूँ अदू को ख़ाक किया मिट्टी में मिलाया घर उस का फूँका न जला कर मुझ को अगर तू ऐ शब-ए-हिज्राँ कुछ न किया क्या जी के करूँगा मैं तन्हा याँ ताब कहाँ बाक़ी दिल को बे-मौत के अब मारा न मुझे तो दाग़-ए-अज़ीज़ाँ कुछ न किया जुम्बिश से तिरी मक़्तल होता इक आन में दश्त-ए-कर्ब-ओ-बला उश्शाक़ की बेबाकी का एवज़ ऐ abruu-e-barraa.n कुछ न किया ऐ नंग-ए-जहाँ ऐ 'शाद' बता कुछ शर्म भी तुझ को है कि नहीं ऐ जेहल-ए-मुरक्कब ऐ हैवाँ ऐ बे-ख़बर इंसाँ कुछ न किया