ग़ाफ़िल दिल और इश्क़ की रस्में इश्क़ कहाँ फिर दिल के बस में कहाँ गए फूलों से घरौंदे जिन के लिए रोते थे क़फ़स में आह वही मतलूब न निकला जिस की तलब रक़्साँ थी नफ़स में उम्मीदों की अपनी घुटन थी उम्र गुज़ारी हम ने उमस में लौ के प्याले क्या छलकाएँ बर्फ़ घुली है धूप के रस में हसरत बन जाती है तमन्ना यूँ न समा दिल की नस नस में