गह पीर-ए-शैख़ गाह मुरीद-ए-मुग़ाँ रहे अब तक तो आबरू से निभी है जहाँ रहे दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह दुश्मन के घर में जैसे कोई मेहमाँ रहे ऐ दीदा दिल को रोते हो क्या तुम हमें तो याँ ये झींकना पड़ा है किसी तरह जाँ रहे क़िस्मत तो देख बार भी अपना गिरा तो वाँ जिस दश्त-ए-पुर-ख़तर में कई कारवाँ रहे सोहबत की गर्मी हम से कोई सीखे मिस्ल-ए-शम्अ सारे हुए सफ़ेद प तद भी जवाँ रहे मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या 'क़ाएम' वो मय-फ़रोश की अपने दुकाँ रहे 'क़ाएम' इसी ज़मीं को तू फिर कह पर इस तरह सुन कर जिसे कि चर्ख़ में नित आसमाँ रहे