गई फ़स्ल-ए-बहार गुलशन से बुलबुलों उड़ चलो नशेमन से फ़ातिहा भी पढ़ा न तुर्बत पर जा के लौट आए मेरी मदफ़न से मुझ को काफ़ी थी क़ैद-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़ बेड़ियाँ क्यूँ बनाईं आहन से ज़ुल्फ़ के पेच से न रह ग़ाफ़िल दोस्ती कर दिला न दुश्मन से हो गरेबाँ का चाक ख़ाक रफ़ू तार हाथ आए जब न दामन से नाज़-ओ-इश्वा नया नहीं सीखा शोख़ तर्रार है लड़कपन से छोड़ कर तुम अगर गए तन्हा जी निकल जाएगा मिरे तन से है कई दिन से मुंतज़िर 'रा'ना' जल्वा दिखलाओ आ के चिलमन से