ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ मैं बयाबानों में रोने को निकल जाता हूँ जोश वहशत का हुआ मौसम-ए-गुल आ पहुँचा कुछ दिनों होश में रहता हूँ सँभल जाता हूँ अपनी रुख़्सत है बुतों से भी अब इंशा-अल्लाह दैर से सू-ए-हरम आज ही कल जाता हूँ कूचा-ए-क़ातिल-ए-बे-रहम जिसे कहते हैं मैं वहाँ दौड़ के मुश्ताक़-ए-अजल जाता हूँ जब निकलने नहीं देते हैं मुझे ज़िंदाँ से अपने आपे से मैं नाचार निकल जाता हूँ ग़ैर अलबत्ता तिरे पाँव में मलते हैं हिना मैं तो आ कर कफ़-ए-अफ़्सोस ही मल जाता हूँ मैं जो रोता हूँ तो कहता है न कर बद-शगुनी बात कहता है वो ऐसी कि दहल जाता हूँ दोस्त होता है तो होता है वो दुश्मन ऐ 'मेहर' वो बदल जाता है या कुछ मैं बदल जाता हूँ