गुल-बाँग थी गुलों की हमारा तराना था अपना भी उस चमन में कभी आशियाना था कूचा में उस के नाला मेरा बे-कसाना था अपना भी इस चमन में कभी आशियाना था जब कोई ज़ुल्फ़ में भी न कुछ दख़्ल-ए-शाना था सौदाई था मिज़ाज मेरा आशिक़ाना था बुलबुल को अपना नाला मौज़ूँ तराना था हर गुल भी माइल ग़ज़ल-ए-आशिक़ाना था नालों में बुलबुलों की जो रंग-ए-तराना था फ़स्ल-ए-बहार थी वो गुलों का ज़माना था उलझा हुआ जो गेसू-ए-जानाँ में शाना था सुम्बुल में एक और नया शाख़-ए-शाना था सौदाइयों को थी तिरी उलझन बला की रात ज़ुल्फ़-ए-दोता का तूल-ओ-तवील इक फ़साना था जाते हैं आप और बुरा हाल है मिरा आती जो अब तो मौत को अच्छा बहाना था तीर-ए-निगाह की जो कमान थी जुड़ी हुई अपना जिगर कभी तो कभी दिल निशाना था दरिया-ए-मै की घात उतारेंगे हम उन्हें शीरीं का जू-ए-शीर का अगला ज़माना था अपनी शब-ए-विसाल का अल्लाह-रे एहतिमाम शबनम की शबनमी थी फ़लक शामियाना था कमली को अपना तान के सोया फ़क़ीर मस्त क्या पश्म था अमीरों का जो शामियाना था का'बा का एहतिराम ख़ुदा-साज़ हो गया उस वक़्त में कहाँ ये तिरा आस्ताना था दैर-ओ-हरम में क्या था अगर हम से पूछिए शायान-ए-सज्दा-ए-यार तिरा आस्ताना था कुंज-ए-क़फ़स में शिकवा-ए-सय्याद क्या करूँ उस का क़ुसूर क्या है मेरा आब-ओ-दाना था रोज़ी हुआ है दाना-ए-ज़ंजीर-ओ-आब-ए-तेग़ क़िस्मत का आशिक़ों की ये है आब-ओ-दाना था लोहे के थे चने तिरे छींटे ग़ज़ब के थी सय्याद ख़ूब अपने लिए आब-ओ-दाना था हो मुझ सा अंदलीब ख़ुश-इलहान असीर-ए-दाम सय्याद का नसीब मेरा आब-ओ-दाना था गंदुम जो ख़ुल्द में तो यहाँ थी शराब-ए-नाब इक मैं था दो जगह पे मिरा आब-ओ-दाना था रिंद-ए-शराब-ए-ख़ार रहा मैं तमाम-उम्र अंगूर का नसीब मुझे आब-ओ-दाना था मैं वो सदफ़ हूँ जिस के है दरिया-दिली का शोर जो हंस चुग रहा है मिरा आब-ओ-दाना था बुलबुल के आगे अपनी बड़ी बात रह गई ग़ुंचा से तो कहीं तेरा छूटा दिया न हाथ रंगीं-ख़यालियाँ दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न न थीं ज़ेब तन-ए-उरूस लिबास-ए-शहाना था मिस्सी कभी मली कभी गेसू बना किए शब-भर शब-ए-विसाल में हीला-बहाना था तुझ से सिवा तो ऐ सनम अल्लाह का ही नाम अच्छा था हाँ हसीन था यूसुफ़ बुरा न था यारान-ए-रफ़्तगाँ का निशाँ ख़ाक ढूँढिए रेग-ए-रवाँ का क़ाफ़िला था जो रवाना था मुँह देखी उन के सामने कहते नहीं हैं हम अपनी ज़बान पे वस्फ़-ए-दहन ग़ाएबाना था बाद-ए-बहार जा के ओड़ा लाई बाग़ में क्या गंज-ए-शाएगान ज़र-ए-गुल का ख़ज़ाना था अपना समंद-ए-उम्र जमा जम के उड़ गया शायद हमारा राज़-ए-नफ़स ताज़ियाना था राज़-ए-निहाँ किसी पे न अपना अयाँ हुआ ना-आश्ना-ए-गोश हमारा फ़साना था पहचानीए तो ख़ाक के पुतलों की ख़ाक को बेगाना कौन कौन सा उन में यगाना था उस शो'ला-रू की थी जो दिल-ए-साफ़ में जगह आतिश-कदा ये 'मेहर' का आईना-ख़ाना था