ग़ैर के घर बन के डाली जाएगी क्यूँ-कर उन की ईद ख़ाली जाएगी आप ने बाँधी है क्यूँ तलवार आज क्या मिरी हसरत निकाली जाएगी फँस चुका दिल हो चुकी आशुफ़्तगी अब तबीअत क्या सँभाली जाएगी जान का देना मुझे मंज़ूर है उन की फ़रमाइश न टाली जाएगी उन पे ज़ाहिर हो न ऐ दिल शौक़-ए-मर्ग तेग़ गर्दन से उठा ली जाएगी दिल को वापस तुम से क्या माँगेंगे हम दे चुके जो शय वो क्या ली जाएगी क्यूँ न वो बेचैन होएँगे 'नसीम' सय्यदों की आह ख़ाली जाएगी