ग़ैरों से मिल चले तुम मस्त-ए-शराब हो कर ग़ैरत से रह गए हम यकसू कबाब हो कर उस रू-ए-आतिशीं से बुर्क़ा सरक गया था गुल बह गया चमन में ख़जलत से आब हो कर कल रात मुँद गई थीं बहुतों की आँखें ग़श से देखा किया न कर तो सरमस्त ख़्वाब हो कर पर्दा रहेगा क्यूँकर ख़ुर्शीद-ए-ख़ावरी का निकले है वो भी अब बे-नक़ाब हो कर यक क़तरा आब मैं ने इस दौर में पिया है निकला है चश्म-ए-तर से वो ख़ून-ए-नाब हो कर आ बैठता था सूफ़ी हर सुब्ह मय-कदे में शुक्र-ए-ख़ुदा कि निकला वाँ से ख़राब हो कर शर्म-ओ-हया कहाँ तक हैं 'मीर' कोई दिन के अब तो मिला करो तुम टुक बे-हिजाब हो कर