हर-चंद कि वो जवाँ नहीं हम इतने भी तो ना-तवाँ नहीं हम क़ीमत है हमारी इक तबस्सुम इस निर्ख़ पे कुछ गिराँ नहीं हम हैं कुंज-ए-क़फ़स के रहने वाले पर्वर्दा-ए-आशियाँ नहीं हम क्यूँ दर पे रहें हमेशा बैठे कुछ आप के पासबाँ नहीं हम तस्वीर किसी की देखते हैं महव-ए-गुल-ओ-बोस्ताँ नहीं हम गर आँख ज़रा भी तू ने फेरी तो गर्दिश-ए-आसमाँ नहीं हम हाथों से तिरे बहार-ए-ख़ूबी शर्मिंदा-ए-बर्ग-ए-पाँ नहीं हम तुम तक भी पहुँच रहेंगे आख़िर कुछ दूर तो हमरहाँ नहीं हम किस रोज़ जराहतों पे दिल की अश्कों से नमक-फ़िशाँ नहीं हम मज्लिस से करे है हम को बाहर गोया कि मिज़ाज-दाँ नहीं हम साए से हमारे इतनी नफ़रत काफ़िर भी तो ऐ बुताँ नहीं हम है चार तरफ़ हमारा जल्वा ढूँडे जो कोई कहाँ नहीं हम यानी कि बरंग-ए-निकहत-ए-गुल पर्दे में हैं और निहाँ नहीं हम मिलता है हर इक से 'मुसहफ़ी' यार समझे है कि बद-गुमाँ नहीं हम