ग़ैरों से मिल के ही सही बे-बाक तो हुआ बारे वो शोख़ पहले से चालाक तो हुआ जी ख़ुश हुआ है गिरते मकानों को देख कर ये शहर ख़ौफ़-ए-ख़ुद से जिगर-चाक तो हुआ ये तो हुआ कि आदमी पहुँचा है माह तक कुछ भी हुआ वो वाक़िफ़-ए-अफ़्लाक तो हुआ कुछ और वो हुआ न हुआ मुझ को देख कर याद-ए-बहार-ए-हुस्न से ग़मनाक तो हुआ इस कश्मकश में हम भी थके तो हैं ऐ 'मुनीर' शहर-ए-ख़ुदा सितम से मगर पाक तो हुआ