साँसों के इस हुनर को न आसाँ ख़याल कर ज़िंदा हूँ साअ'तों को मैं सदियों में ढाल कर माली ने आज कितनी दुआएँ वसूल कीं कुछ फूल इक फ़क़ीर की झोली में डाल कर कुल यौम-ए-हिज्र ज़र्द ज़मानों का यौम है शब भर न जाग मुफ़्त में आँखें न लाल कर ऐ गर्द-बाद लौट के आना है फिर मुझे रखना मिरे सफ़र की अज़िय्यत सँभाल कर मेहराब में दिए की तरह ज़िंदगी गुज़ार मुँह-ज़ोर आँधियों में न ख़ुद को निढाल कर शायद किसी ने बुख़्ल-ए-ज़मीं पर किया है तंज़ गहरे समुंदरों से जज़ीरे निकाल कर ये नक़्द-ए-जाँ कि इस का लुटाना तो सहल है गर बन पड़े तो इस से भी मुश्किल सवाल कर 'मोहसिन' बरहना-सर चली आई है शाम-ए-ग़म ग़ुर्बत न देख इस पे सितारों की शाल कर