ग़ज़ल को गर्दिश-ए-अय्याम से निकालते हैं उसे न होने के इबहाम से निकालते हैं ये लोग क्यूँ तिरी तकज़ीब करते हैं जबकि हज़ार काम तिरे नाम से निकालते हैं ये शे'र हैं हमें ख़ैरात में नहीं मिलते कभी धुएँ से कभी जाम से निकालते हैं तुझे ख़बर ही नहीं है कि हम विसाल की फ़ाल कभी सहर से कभी शाम से निकालते हैं ख़ुदाया दश्त-ए-सफ़र ख़त्म क्यूँ नहीं होता सुराग़-ए-राह तो हर गाम से निकालते हैं अब इंतिज़ार यही है कि कब हमारे इमाम हमें मुसीबत-ओ-आलाम से निकालते हैं कुछ और कामों में दिल को लगा के देखें 'ज़की' इसे तिलिस्म-ए-शफ़क़-फ़ाम से निकालते हैं