गले लगाए रहा सब का ध्यान था इतना गई रुतों का शजर मेहरबान था इतना न जाने कितने समुंदर उतर गए होंगे किसी के पाँव का गहरा निशान था इतना ख़लाओं में हद-ए-फ़ासिल को खींचने वालो ज़मीं से दूर कभी आसमान था इतना खड़ा है सामने बन कर ख़ुलूस का पैकर जो शख़्स देखने में बद-ज़बान था इतना बदन से रूह निकलने के ब'अद लौट आई वो मर के भी न मिरा सख़्त-जान था इतना वो अपने क़द को बढ़ा कर भी छू नहीं पाए झुका हुआ ये तिरा साएबान था इतना कोई चराग़-ए-सहर तक न चल सका ऐ 'शाद' गली के मोड़ पे ख़ूनी मकान था इतना