ग़म है खाने को अश्क पीने को ये भी कम क्या है अपने जीने को दिल में हरगिज़ न रखिए कीने को और भी ग़म बहुत हैं जीने को अपने दिल में छुपाए फिरता हूँ मैं तिरे दर्द के दफ़ीने को जिस को कहती है अश्क-ए-ग़म दुनिया कोई देखे तो इस नगीने को मौज-दर-मौज आ रही है सदा डूब जाने दो अब सफ़ीने को लाग में है लगाओ का अंदाज़ कौन समझेगा इस क़रीने को सोचता हूँ कि किस से दूँ तश्बीह इस जबीं पर हसीं पसीने को इश्क़ ने कर दिया है मुझ को निहाल देखिए दर्द के ख़ज़ीने को शिकवा बर-हक़ 'नज़ीर' ये सोचो ठेस पहुँचेगी आबगीने को