दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी रौशन है राह नूर-ए-सदा के बग़ैर भी इक ख़ौफ़ सा दरख़्तों पे तारी था रात-भर पत्ते लरज़ रहे थे हवा के बग़ैर भी घर घर वबा-ए-हिर्स-ओ-हवस है तो क्या हुआ मरते हैं लोग रोज़ वबा के बग़ैर भी मैं सारी उम्र लफ़्ज़ों से कम्बल न बुन सका कटती है रात यानी रिदा के बग़ैर भी एहसास-ए-जुर्म जान का दुश्मन है 'जाफ़री' है जिस्म तार तार सज़ा के बग़ैर भी