ग़म ही ले दे के मिरी दौलत-ए-बेदार नहीं ये ख़ुशी भी है मयस्सर कोई ग़म-ख़्वार नहीं ख़ुद से भी तोड़ चुका हूँ मैं तअल्लुक़ अपना अब मिरी राह में हाइल कोई दीवार नहीं ऐसी सुनसान कभी पहले न थी हिज्र की रात दूर तक क़ाफ़िला-ए-सुबह के आसार नहीं बात आसान फ़रावानी-ए-ग़म ने कर दी अब मुझे शिकवा-ए-ना-कामी-ए-इज़हार नहीं ज़िंदा रह लूँ किसी सूरत तो बड़ी बात है ये वर्ना जाँ से तो गुज़रना कोई दुश्वार नहीं दाम-ए-वहशत से रिहाई नहीं मुमकिन शायद हूँ असीर अपना भी सिर्फ़ उस का गिरफ़्तार नहीं क़िस्सा-ए-ग़म भी वही मैं भी वही दिल भी वही पर वो पहला सा ख़ुलूस-ए-दर-ओ-दीवार नहीं