ग़म जुदाई का न शायद मुझे इतना होता तुम ने ऐ काश जो मुझ को कभी समझा होता इब्न-ए-आदम न कभी इस तरह तिश्ना होता रेत पे उस को जो पानी का न धोका होता ऐन मुमकिन है कि ज़िद छोड़ के वो रुक जाता जाने वाले ने जो मुड़ कर मुझे देखा होता क्या अजब है कि वो गंदुम को न छूता हरगिज़ मर्द-ए-अव्वल न अगर बख़्त का मारा होता दो क़दम साथ तो मिलते मिरे अहबाब 'नरेश' काश हर दोस्त ने विश्वास न तोड़ा होता