ग़म के बादल फिर भी छाए रह गए आँख से दरिया के दरिया बह गए ख़ौफ़-ए-उक़्बा और इस दुनिया के बा'द वो भी सह लेंगे जो ये ग़म सह गए किस ने देखा है जमाल-ए-रू-ए-दोस्त सब नक़ाबों में उलझ कर रह गए मुख़्तसर थी दास्तान-ए-अर्ज़-ए-शौक़ बुझ के कुछ तारे मिज़ा पर रह गए ज़ीस्त है इक शाम अफ़्साने का नाम अपनी अपनी दास्ताँ सब कह गए तब कहीं जा कर मिली सत्ह-ए-सुकूँ डूब कर जब ग़म में तह-दर-तह गए वार कर के ज़ीस्त भागी और हम आस्तीं अपनी चढ़ाते रह गए चंद शैताँ बंद कर के ख़ुश हैं यूँ जैसे बाहर सब फ़रिश्ते रह गए अश्क बन पाए न ग़म के तर्जुमाँ ये नुमाइश ही में अपनी रह गए ज़िंदगी से लड़ न पाया जोश-ए-दिल पर बहुत तोले मगर रह रह गए अश्क थे जब तक फ़रोज़ाँ ग़म न था अब अँधेरे में अकेले रह गए जेबें सब यारों ने भर लीं बज़्म में एक 'मुल्ला' थे जो यूँही रह गए