ग़म-ए-इंसाँ से जो दिल शो'ला-ब-जाँ होता है वही हर दौर में मेमार-ए-जहाँ होता है दिल में रहरव के अगर अज़्म-ए-जवाँ होता है गाम भटका भी तो मंज़िल का निशाँ होता है होंट सीने से सिवा सोज़-ए-निहाँ होता है शो'ला देता है तो कुछ और धुआँ होता है ना'रा-ए-हक़ को दबाते हैं खुली बज़्म में जब ये किसी गोशा-ए-ज़िंदाँ में जवाँ होता है कौन पत्थर है गुहर कौन परखने की है बात देखने ही से ये अंदाज़ा कहाँ होता है इश्क़ में शुक्र-ओ-शिकायत में कोई फ़र्क़ नहीं अपना अपना अलग अंदाज़-ए-बयाँ होता है मैं भी इंसाफ़ का ख़्वाहाँ हूँ मगर ऐ मालिक तेरी दुनिया में अब इंसाफ़ कहाँ होता है कौन सा है ये मोहब्बत में मक़ाम ऐ 'मुल्ला' कल्मा-ए-लुत्फ़ भी अब दिल पे गराँ होता है