ग़म के बे-नूर मज़ारों का गला घोंट आया सारे बे-मेहर सहारों का गला घोंट आया क़र्या-ए-हिज्र के इक घर का वो वीरान आँगन वस्ल के शोख़ नज़ारों का गला घोंट आया राह के संग को सूली पे चढ़ाया पहले और फिर पाँव के ख़ारों का गला घोंट आया रोज़ सूरज कि तरफ़ से ये सवाल आता है क्या मैं उन चंद सितारों का गला घोंट आया ज़ुल्मत-ए-शब मैं वो बस्ती के नशीनों का जुनून शहर की सारे मनारों का गला घोंट आया हाए इक फूल मसलने को ये काँटों का हुजूम जा के गुलशन में बहारों का गला घोंट आया दार-ए-पुर-ख़ार पे लटका के सुलगते फंदे क़तरा-ए-आब शरारों का गला घोंट आया आज फिर ज़ब्त-ए-रग-ए-जाँ से निकल कर 'नायाब' दर्द के जलते दयारों का गला घोंट आया