ग़म के हाथों मिरे दिल पर जो समाँ गुज़रा है हादिसा ऐसा ज़माने में कहाँ गुज़रा है ज़िंदगी का है ख़ुलासा वही इक लम्हा-ए-शौक़ जो तिरी याद में ऐ जान-ए-जहाँ गुज़रा है हाल-ए-दिल ग़म से ये है जैसे किसी सहरा में अभी इक क़ाफ़िला-ए-नौहा-गराँ गुज़रा है बज़्म-ए-दोशीं को करो याद कि इस का हर रिंद रौनक़-ए-बार-गह-ए-पीर-ए-मुग़ाँ गुज़रा है पा-ब-गुल जो थे वो आज़ुर्दा नज़र आते हैं शायद इस राह से वो सर्व-ए-रवाँ गुज़रा है निगरानी-ए-दिल-ओ-दीदा हुई है दुश्वार कोई जब से मिरी जानिब निगराँ गुज़रा है हाल-ए-दिल सुन के वो आज़ुर्दा हैं शायद उन को इस हिकायत पे शिकायत का गुमाँ गुज़रा है वो गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार का पैकर 'सालिक' आज कूचे से तिरे अश्क-फ़िशाँ गुज़रा है