ग़म की चादर ओढ़ कर सोए थे क्या By Ghazal << हिसार-ए-जिस्म से आगे निकल... गहरी नीली शाम का मंज़र लि... >> ग़म की चादर ओढ़ कर सोए थे क्या रात भर मेरे लिए रोए थे क्या चादर-ए-इस्मत के धब्बे आप ने रात पी कर सुब्ह-दम धोए थे क्या मैं ने पूछा उन से इक सादा सवाल ख़ार मेरी राह में बोए थे क्या ढूँडते फिरते हो ख़ुद को 'नाज़ुकी' इन्ही गलियों में कभी खोए थे क्या Share on: