ग़म की सौ बार चोट खाई है ज़िंदगी फिर भी मुस्कुराई है आँख भर आई दिल पे चोट लगी जाने क्या बात याद आई है गुल भी शरमाएँ उन से ऐसे में क्या ही अंदाज़-ए-दिल-रुबाई है वो जो गुलशन में आए मैं समझा मस्त ओ ख़ंदाँ बहार आई है ज़हर-ए-ग़म खा के मैं तो जी लूँगा तुम ने सूरत ये क्या बनाई है दौलत-ए-इश्क़ यूँ नहीं पाई जान दे कर ये हाथ आई है पाँव आ कर जुनूँ ने थाम लिए जिस जगह अक़्ल डगमगाई है बंध गया है तसव्वुर-ए-जानाँ इक अजब बे-ख़ुदी सी छाई है शेर कहते हो रात-दिन 'आक़िल' क्या तबीअत ये तुम ने पाई है