ग़म से घबरा के क़यामत का तलबगार न बन इतना मायूस-ए-करम ऐ दिल-ए-बीमार न बन ख़्वाहिश-ए-दीद है तो ताब-ए-नज़र पैदा कर वर्ना बेहतर है यही तालिब-ए-दीदार न बन मुझे मंज़ूर है ये बर्क़ गिरा दे मुझ पर मुझ से बेगाना मगर ऐ निगह-ए-यार न बन दामन-ए-हाल को भी फूलों से भर दे नादाँ सिर्फ़ मुस्तक़बिल-ए-रंगीं का तरफ़-दार न बन बिल-यक़ीं मंज़िल-ए-मक़्सूद मिलेगी मुझ को ना-उमीदी तू मिरी राह की दीवार न बुन है रिहाई की तमन्ना तो गिरा दे दीवार क़ैद-ए-ज़़िंदाँ में रहीन-ए-ग़म-ए-दीवार न बन लाएक़-ए-हम्द है वो जिस की ज़िया है उन में कम-नज़र चाँद सितारों का परस्तार न बन मैं ख़तावार हूँ तो मुझ को मिटा दे सय्याद सारे गुलशन के लिए बाइस-ए-आज़ार न बन ऐसे इक़दाम का हासिल है यहाँ नाकामी बज़्म-ए-साक़ी है ये 'कशफ़ी' यहाँ ख़ुद्दार न बन