ग़म-ए-फ़ुर्क़त ही में मरना हो तो दुश्वार नहीं शादी-ए-वस्ल भी आशिक़ को सज़ा-वार नहीं ख़ूब-रूई के लिए ज़िश्ती-ए-ख़ू भी है ज़रूर सच तो ये है कि कोई तुझ सा तरह-दार नहीं क़ौल देने में तअम्मुल न क़सम से इंकार हम को सच्चा नज़र आता कोई इक़रार नहीं कल ख़राबात में इक गोशे से आती थी सदा दिल में सब कुछ है मगर रुख़्सत-ए-गुफ़्तार नहीं हक़ हुआ किस से अदा उस की वफ़ादारी का जिस के नज़दीक जफ़ा बाइस-ए-आज़ार नहीं देखते हैं कि पहुँचती है वहाँ कौन सी राह काबा ओ दैर से कुछ हम को सरोकार नहीं होंगे क़ाइल वो अभी मतला-ए-सानी सुन कर जो तजल्ली में ये कहते हैं कि तकरार नहीं