छोटी छोटी बातों में आँखें भर आती हैं या तो हम थोड़े पागल हैं या जज़्बाती हैं सच्चा झूटा नेक और बद हैं मेरे तआ'रुफ़ सब एक ही जिस्म में कितनी रूहें गश्त लगाती हैं सुना है उस तालाब का पानी बड़ा नशीला है सुना है उस में परियाँ आ कर रोज़ नहाती हैं कुछ तो दर्द दिए हैं मुझ को दुनिया वालों ने लेकिन कुछ ऐसे ग़म हैं जो मेरे ज़ाती हैं इस बर्तन का मैला पानी अमृत जैसा है इस में नन्ही चिड़ियाँ आ कर प्यास बुझाती हैं आ पहुँचा हूँ तन्हाई के ऐसे जंगल में जिस में ख़ुद अपनी आवाज़ें लौट के आती हैं चीख़ती रहती हैं ख़ामोशी मेरे होंटों पर जिस तरह साहिल पर लहरें शोर मचाती हैं शहर में आ कर भी हम अपनी मिट्टी कब भूले फ़ख़्र हमें है ऐ 'ख़ालिद' के हम देहाती हैं