ग़म-ए-हयात का मंज़र बदलने वाला है ख़ुशी मनाओ कि सूरज निकलने वाला है वो शख़्स जिस ने हमेशा ख़ुलूस बाँटा था ज़रा सी बात पे तेवर बदलने वाला है ग़ुरूर होने लगा उस को अपनी शोहरत पर ये अज़दहा इसे ज़िंदा निगलने वाला है सँभालो अपने सफ़ीने ख़ुद अपने हाथों में सुना है आज समुंदर मचलने वाला है वक़ार-ए-इल्म-ओ-हुनर कम न हो कहीं 'एजाज़' यही चराग़ हवाओं में जलने वाला है