ग़म-ए-हयात कहानी है क़िस्सा-ख़्वाँ हूँ मैं दिल-ए-सितम-ज़दा है राज़-दाँ हूँ मैं ज़ियादा इस से कोई आज तक बता न सका कि एक नुक्ता-ए-ना-क़ाबिल-ए-बयाँ हूँ मैं नज़र के सामने कौंदी थी एक बिजली सी मुझे बताओ ख़ुदा-रा कि अब कहाँ हूँ मैं ख़िज़ाँ ने लूट लिया गुलशन-ए-शबाब मगर किसी बहार के अरमान में जवाँ हूँ मैं ये कह रही है नज़र की ग़म-ए-आफ़रीं जुम्बिश किसी के दिल की तबाही की दास्ताँ हूँ मैं ख़िज़ाँ कहती थी मैं शोख़ी-ए-बहाराँ हूँ बहार कहती है रंगीनी-ए-ख़िज़ाँ हूँ मैं शबाब नाम है उस जाँ-नवाज़ लम्हे का जब आदमी को ये महसूस हो जवाँ हूँ मैं जहान-ए-दर्द-ओ-अलम पूजता है मुझ को आह तपिश-ए-जबीं है लहू सज्दा आस्ताँ हूँ मैं वो दिन भी थे कि मैं जान-ए-शबाब था 'अख़्तर' अब अपने अहद-ए-जवानी की दास्ताँ हूँ मैं