ग़म-ओ-निशात अजब था कि सब फ़ज़ा चुप थी मोहब्बतों का शजर ख़ुश्क था सबा चुप थी अज़ाब झेल रहा था कई बलाओं के लबों पे माँ के गुज़िश्ता दिनों दुआ चुप थी बुझा दिया था चराग़ों को घर के बूढ़ों ने अजीब शहर में वहशत थी हर सदा चुप थी शिकम की आग ने झुलसा दिया था जिस्म-ओ-जमाल हर एक शख़्स पे थी बे-हिसी अना चुप थी कई चराग़ कई ताक़चों में रौशन थे कमाल ये था वहाँ सर-फिरी हवा चुप थी 'अज़ीम' फ़िक्र थी माँ को जवान बेटी की हुए थे हाथ तो पीले मगर हिना चुप थी