ग़म-ओ-रंज-ओ-अलम के दरमियाँ रहना ही पड़ता है जहाँ रक्खे ख़ुदा ऐ दिल वहाँ रहना ही पड़ता है बहार-ए-जाँ-फ़ज़ा हो या ख़िज़ाँ रहना ही पड़ता है ब-हर-सूरत ब-ज़ेर-ए-आसमाँ रहना ही पड़ता है परेशाँ-हालियों में शादमाँ तो रह नहीं सकते परेशाँ-हालियों में शादमाँ रहना ही पड़ता है तुलू-ए-ज़िंदगानी से ग़ुरूब-ए-ज़िंदगानी तक रवाँ रहना ही पड़ता है दवाँ रहना ही पड़ता है हुई हैं ग़र्क़ लाखों कश्तियाँ जिस की क़यादत में हमें उस ना-ख़ुदा से बद-गुमाँ रहना ही पड़ता है कहाँ आए कहाँ से और जाएँगे कहाँ यारब कहाँ रहना नहीं पड़ता कहाँ रहना ही पड़ता है यक़ीं जिन को नहीं 'बिस्मिल' ख़ुद अपने दस्त-ओ-बाज़ू पर उन्हें मिन्नत-गुज़ार-ए-दीगराँ रहना ही पड़ता है