गर चाहते हो फ़र्श से अफ़्लाक पे रक्खो इक बार मुझे फिर से ज़रा चाक पे रक्खो इक बर्फ़ की सिल क़ल्ब-ए-परेशाँ पे उतारो इक दश्त मिरे दीदा-ए-नमनाक पे रक्खो तुम रम्ज़-ए-शहादत के मआ'नी नहीं समझे सर नोक की सिदरा पे बदन ख़ाक पे रक्खो लाज़िम है कि चाबुक से तराशो मिरा पैकर वाजिब है कि तुम तुर्श-रवी नाक पे रक्खो फिर पुश्त पे हर ख़्वाब की ज़ंजीर-ज़नी हो जब शाम-ए-ग़रीबाँ मिरी पोशाक पे रक्खो यूँ क़ैस के रुत्बे की ख़बर होनी है 'राहिब' सहरा को अगर शाना-ए-इदराक पे रक्खो