गर जुनूँ कर मुझे पाबंद-ए-सलासिल जाता पाँव रखने का ठिकाना तो कहीं मिल जाता मर भी जाता तो न मेरा मरज़-ए-सिल जाता ग़म-ए-असनाम की छाती पे धरे सिल जाता ख़त्त-ए-आरिज़ जो तरशने से मिटे है ये मुहाल छीलने से नहीं क़िस्मत का लिखा छिल जाता छूटता ईद के दिन भी न गिरफ़्तारों को सूरत-ए-तौक़-ए-गुलू-गीर गले मिल जाता जब चमकती है तिरी तेग़ तबस्सुम ऐ गुल दहन-ए-ज़ख़्म है ग़ुंचे की तरह खिल जाता दिल में होता न मिरे दख़्ल बला-ए-काकुल साया रहता न कभी गिर्या मकाँ किल जाता रा'शा-अंदाम हूँ ये ख़ौफ़-ए-ख़ुदा से ऐ 'शाद' कोई मुजरिम हो कलेजा है मिरा हिल जाता