गर मानते हो उस को ख़ुदा मुतमइन रहो जो भी मिला है जितना मिला मुतमइन रहो जब लश्कर-ए-उमीद को ख़ौफ़-ए-शिकस्त था तब आसमाँ से आई सदा मुतमइन रहो औरत ने जब भी बात की अपने हुक़ूक़ की दुनिया ने साथ मिल के कहा मुतमइन रहो सागर है सिर्फ़ दरिया की मौज़ूँ के दम से ही अब ये भरम भी टूट गया मुतमइन रहो तुम पेड़ से फलों की तवक़्क़ो ही मत रखो गर मिल रही है इस से हवा मुतमइन रहो हम हिज्र में ये कहते रहे दिल से बार बार वो है फ़क़त ज़रा सा ख़फ़ा मुतमइन रहो चारागरी की जब भी की ज़ख़्मों ने इल्तिजा हँस कर फ़क़ीर ने ये कहा मुतमइन रहो सारे बयान-ए-इश्क़ में मेरे ख़िलाफ़ हैं तुम को नहीं मिलेगी सज़ा मुतमइन रहो