निगाह-ए-हुस्न की तासीर बन गया शायद ख़याल-ए-ज़ेहन में ज़ंजीर बन गया शायद वो एक नाम जो तुम ने मिटा दिया है अभी जबीन-ए-वक़्त पे तहरीर बन गया शायद मिरी निगाह में ना-मो'तबर था जिस का वजूद वो फ़ासला मिरी तक़दीर बन गया शायद ख़ुद अपना चेहरा भी अब तो नज़र नहीं आता हर आइना तिरी तस्वीर बन गया शायद रह-ए-ख़ुलूस में फ़ितरत थी जिस की मुस्तहकम वो संग-ए-मील भी रहगीर बन गया शायद