गर मुझ से ख़फ़ा हो तो सज़ा क्यों नहीं देते मुझ को भरी महफ़िल से उठा क्यों नहीं देते होता है फ़क़त जिन से अँधेरों में इज़ाफ़ा तुम ऐसे चराग़ों को बुझा क्यों नहीं देते बीमार तुम्हारे लब-ए-दम हैं ज़रा देखो तुम कैसे मसीहा हो दवा क्यों नहीं देते वो जिंस-ए-गिराँ जिस को वफ़ा कहती है दुनिया बाज़ार में बिकती है तो ला क्यों नहीं देते रहते हो रग-ए-जाँ से भी नज़दीक ये माना तुम ढूँडने वालों को पता क्यों नहीं देते महफ़िल में जो हाल-ए-दिल-ए-पुर-दर्द तुम्हारा वो पूछ रहा है तो बता क्यों नहीं देते 'हामिद' तुम्हें मंज़िल का पता जिस ने बताया तुम ऐसे मुसाफ़िर को दुआ क्यों नहीं देते