गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा बे-तकल्लुफ़ दाग़-ए-मह मोहर-ए-दहाँ हो जाएगा ज़ोहरा गर ऐसा ही शाम-ए-हिज्र में होता है आब परतव-ए-महताब सैल-ए-ख़ानुमाँ हो जाएगा ले तो लूँ सोते में उस के पाँव का बोसा मगर ऐसी बातों से वो काफ़िर बद-गुमाँ हो जाएगा दिल को हम सर्फ-ए-वफ़ा समझे थे क्या मालूम था यानी ये पहले ही नज़्र-ए-इम्तिहाँ हो जाएगा सब के दिल में है जगह तेरी जो तू राज़ी हुआ मुझ पे गोया इक ज़माना मेहरबाँ हो जाएगा गर निगाह-ए-गर्म फ़रमाती रही तालीम-ए-ज़ब्त शोला ख़स में जैसे ख़ूँ रग में निहाँ हो जाएगा बाग़ में मुझ को न ले जा वर्ना मेरे हाल पर हर गुल-ए-तर एक चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ हो जाएगा वाए! गर मेरा तिरा इंसाफ़ महशर में न हो अब तलक तो ये तवक़्क़ो है कि वाँ हो जाएगा फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद' दोस्ती नादाँ की है जी का ज़ियाँ हो जाएगा