गरचे बातिल को ना-पसंद रहा ना'रा-ए-हक़ मगर बुलंद रहा जिस ने अर्ज़-ए-नियाज़ भी न सुनी दिल उसी का नियाज़-मंद रहा पी लिया ज़हर-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम फिर भी लहजा हमारा क़ंद रहा बे-हिसी थी मिरे तआ'क़ुब में इस लिए मैं फ़सील-बंद रहा सर-निगूँ रतजगों को होना पड़ा परचम-ए-ख़्वाब सर-बुलंद रहा क्या मिले उस से एक बार 'सुख़न' मौज में फ़िक्र का समंद रहा