गरचे मैं अपने क़द के बराबर नहीं रहा लेकिन अमीर-ए-शहर से डर कर नहीं रहा ये भी नहीं कि अब वो सितमगर नहीं रहा इतना ज़रूर है कि वो पत्थर नहीं रहा बे-सम्त रास्तों के मुसाफ़िर हैं सब यहाँ कोई भी इक मदार के अंदर नहीं रहा अहल-ए-ख़िरद का नाज़ बजा है मगर कभी अहल-ए-जुनूँ के हाथ में पत्थर नहीं रहा 'अज़हर' गुज़र रहे हैं शब-ओ-रोज़ इस तरह आँखों में कोई प्यार का मंज़र नहीं रहा