जिस की ख़्वाहिश थी चले वक़्त की रफ़्तार के साथ आज वो शख़्स ज़मीं-बोस है दस्तार के साथ गो मुनाफ़िक़ है मगर फिर भी हसीं लगता है जब भी मिलता है वो मिलता है बड़े प्यार के साथ तू अगर ऐ मिरे सालार इसी में ख़ुश है रेहन रख देते हैं दस्तार भी तलवार के साथ कैसा मौसम है कि हर सम्त नज़र आते हैं सर समर की तरह लटके हुए अश्जार के साथ जाने क्या बात उसे घर से उठा लाई है ख़्वाब भी बेचती फिरती है वो अख़बार के साथ ऐ मिरे ज़ूद-फ़रामोश कभी देख इधर क्या गुज़रती है यहाँ पर तिरे शह-कार के साथ देख लेता है फ़क़त एक नज़र जो भी तुझे बैठ जाता है वो लग कर तिरी दीवार के साथ दाद देगा मिरे अशआ'र की लेकिन पहले सोच के ज़ाविए परखेगा वो परकार के साथ 'ग़ालिब'-ओ-'फ़ैज़' से रिश्ता है वो अपना 'अज़हर' जैसे इक कूँज का रिश्ता हो किसी डार के साथ