गर्द ने ख़ेमा तान लिया था धूप का शीशा धुँदला सा था निकहत-ओ-नूर को रुख़्सत करने बादल दूर तलक आया था गए दिनों की ख़ुश्बू पा कर मैं दोबारा जी उट्ठा था सोती जागती गुड़िया बन कर तेरा अक्स मुझे तकता था वक़्त का ठाठें मारता सागर एक ही पल में सिमट गया था जंगल दरिया खेत के टुकड़े याद नहीं अब आगे क्या था नील गगन से एक परिंदा पीली धरती पर उतरा था