गर्दिश में ज़हर भी है मुसलसल लहू के साथ मरता भी जा रहा हूँ मैं अपनी नुमू के साथ जिन मौसमों में तेरी रिफ़ाक़त थी ना-गुज़ीर तू ने रुतें बनाई हैं वो भी अदू के साथ मुझ को अता हुआ है ये कैसा लिबास-ए-ज़ीस्त बढ़ते हैं जिस के चाक बराबर रफ़ू के साथ मुझ को वही मिला मुझे जिस की तलब न थी मशरूत कुछ नहीं है यहाँ आरज़ू के साथ अब जाम-ए-जम से लोग यहाँ मुतमइन नहीं 'जाज़िब' गुज़र रही है शिकस्ता सुबू के साथ