गर्दिश-ए-चर्ख़ से क़याम नहीं सुब्ह घर में हूँ मैं तो शाम नहीं कभी तो मुँह से बोलिए साहब बे-दहन हो तो कुछ कलाम नहीं जाँ-ब-लब हूँ फ़िराक़-ए-दिल-बर में सुब्ह जीता रहा तो शाम नहीं किस के ज़ुल्फ़ों के बाल बिखरे हैं मेरे नब्ज़ों में इंतिज़ाम नहीं रोज़-ओ-शब ज़िक्र-ए-ज़ुल्फ़-ओ-आरिज़ है ये कहानी कभी तमाम नहीं क्या रक़ीबों से मैं जिहाद करूँ मेरे हमराह वो इमाम नहीं तेरा दीवाना मर गया शायद आज गलियों में अज़दहाम नहीं हिज्र में ये शराब है तेज़ाब हाथ पर आबला है जाम नहीं क्या समझ कर ये नाज़ करते हैं अमरदों का कोई ग़ुलाम नहीं वलवले थे शबाब तक अपने अब हमारी वो धूम-धाम नहीं इस तरफ़ से हैं सज्दे पर सज्दे उस तरफ़ से कभी सलाम नहीं दिल को ले कर अलग हुए ऐसे कि कभी तुम को हम से काम नहीं मौज दरिया-ए-पाएमाली है उस जफ़ाकार का ख़िराम नहीं बोसा ले कर मज़ा मिला मुझ को हंज़ल उस का ज़क़न है आम नहीं किस के बल पर वो शोख़ है मग़रूर ख़त-ए-शब-रंग फ़ौज-ए-शाम नहीं 'बहर' बहके हुए हैं अहल-ए-दिल नश्शा-ए-आब-ए-ज़र मुदाम नहीं