गरेबाँ को रफ़ू करने लगे हैं नवाज़िश ख़ूब-रू करने लगे हैं क़यामत है लब-ए-नाज़ुक से अपने वो शरह-ए-आरज़ू करने लगे हैं सर-ए-मक़्तल न जाने किस का ख़ूँ है फ़रिश्ते भी वुज़ू करने लगे हैं न जाने सूझी क्या बैठे बिठाए तुम्हारी आरज़ू करने लगे हैं निगाहों से कभी जो बोलते थे ज़बाँ से गुफ़्तुगू करने लगे हैं अज़ल से गुम है जो पर्दों में 'जौहर' उसी की जुस्तुजू करने लगे हैं