ग़रज़ किसी से न ऐ दोस्त तुम कभू रखियो बस अपने हाथ यहाँ अपनी आबरू रखियो ज़माना संग सही आईने की ख़ू रखियो जो दिल में रखियो वही सब के रू-ब-रू रखियो रफ़ू-गरान-ए-ख़िरद के न जाइयो नज़दीक बला से पैरहन-ए-चाक बे-रफ़ू रखियो चराग़ घर में मयस्सर नहीं रहे न सही जलाए दिल में मगर शम्अ-ए-आरज़ू रखियो न जाने कौन उसे तोड़-फोड़ कर रख दे बहुत सँभाल के इस बज़्म में सुबू रखियो हर एक ज़र्फ़ बराबर नहीं है ऐ बुलबुल जो आग सीने में रखूँ हूँ मैं न तू रखियो यही बचाएगी शमशीर-ए-वक़्त से 'आजिज़' हमारी बात क़रीब-ए-रग-ए-गुलू रखियो